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1 Jan 2026, Thu

गंधर्व सेन की नगरी विरासत का संकट-कैलाश वर्मा


देवास। 
प्राचीन समय में गंधर्वपुरी कोई दर्शनीय स्थल ही नहीं नरेशों की राजधानी और व्यापारिक केंद्र के रूप में विख्यात था। जिसके चारों ओर छोटी-छोटी पहाडिय़ों व पथरीली नदी कालिसिंध का प्राकृतिक सुंदर बिखरा पड़ा बिखरा पड़ा था। यह नगर अपनी खूबसूरती के कारण आदि कवियों पूरा वेता व इतिहासकारों के केंद्र में आया। सहिष्णुता की भाषा बोलता गंधर्वनगर, ब्राह्मण, जैन, वैष्णव, धर्म की मिलीजुली संस्कृति का प्रतीक बन गया था। पुरातत्वी व संस्कृतिशीला की गवाह के रूप में इस धरती पर मौजूद है। इसकी जमीन में अपने गर्भ में अभी तक इतिहास की स्मृतियां संजोए हैं। गंधवपुरी के बारे में कहावत है जहां से भी खुदाई करो कुछ ना कुछ जरूर निकलेगा। आज भी खुदाई का काम चलता रहता है और इतिहास के नए पृष्ठ खुलते रहते हैं। सदियों से उपेक्षित व शांत पत्थर जब पृथ्वी से बाहर निकलते हैं तब बोलने लगते हैं। हर पत्थर इतिहास की किसी न किसी मिल के पत्थर में बदल जाता है और इस प्रकार मनुष्य ज्ञान में इजाफा करता इतिहास अपने सपनों पर कुछ और नई इबारते अंकित कर देता है। देवास जिले के गंधरपुरी की कहानी भी इतिहास की ऐसे ही कहानी है। राजा गंधर्व सेन एक प्रताप भी योद्धा, संगीतज्ञ, साहित्यप्रेमी, कला मर्मज्ञ, इतिहास पुरुष थे। मालवा में किवदंती है कि राजा गंधर्व सेन को श्राप था कि वह दिन में गधा बनेंगे और रात में पुरुष। लोक लज्जा से ग्रस्त रानी ने उनके गधे का चोला जला दिया। जिस पर राजा ने कुपित होकर श्राप दिया कि कल सुबह होते ही यह नगर पत्थर का बन जाएगा। आज भी स्त्री-पुरुष की जैसी प्रतिमाएं निकलती हैं, किंतु पुरातत्व वेता श्रीमती भारतीय श्रोती इन्हें देव प्रतिमाएं मानती है। नगर में धूलकोट गिरने और सारा नगर पत्थर का बन जाने का मना करती है और कहती है कि शायद उस जमाने में भूकंप को ही ऐसा कहा जाता होगा। जिसे नगर नष्ट हो गया होगा। गंधर्व नगर किसी मुख्य मार्ग, सार्थवाह (व्यापारिक मार्ग) से जुड़ा था, जिससे उसका विकास हुआ। प्राचीन नाम गंदावल था। डॉ. कैलाश नाथ काटजू, स्व. पूर्व मुख्यमंत्री मप्र ने नाम परिवर्तन कर गंधर्वपुरी कर रख दिया। यह नगर इसा पूर्व अवंति जनपद का श्रेष्ठ नगर था। जिसका राजा गंधर्व सेन जब वे राजकुमार थे तब उन्होंने एक जैन श्राविका सरस्वती से अपना विवाह प्रस्ताव रखा किंतु श्राविका के दो भाइयों ने अफगानिस्तान सिंधु प्रदेश से शकों को बुलाकर गंधर्वसेन को आहत कर दिया और उनके पिता मार डाला व राज्य छीन लिया। निर्वाषित होकर दक्षिण में एक राज्य कन्या से विवाह रचाया। जिससे विक्रमादित्य जैसी प्रताप भी पुत्र हुआ। शकों के विक्रमादित्य ने हराकर गंधर्व नगर ले लिया व कालकाचार्य को बंदी बना लिया। इस नगर में सिंहासन बत्तीसी का ऐतिहासिक प्रमाण मिला। किंतु मिट्टी की एक सिला मिली। उस पर कृतस उज्जयनि लिखा है। कुछ विद्वानो का कहना है कि विक्रमादित्य का जन्म यहां हुआ होगा। विक्रमादित्य की माता सातवाहन की माता थी एवं विक्रमादित्य का लालन पालन ननिहाल में हुआ था। परमारकाल का उत्कृष्ट वास्तु स्थापत्य मूर्ति कला का काल माना जाता है। इस गंधर्वनगरी में लगभग 293 प्रतिमाएं उत्खनन की गई और कई प्रतिमाएं हर घर में दबी पड़ी है। गंधर्व सेन मंदिर-शिव मंदिर हैं जो दसवीं से 13वीं शताब्दी का माना जाता है। कहा जाता है कि यहां अमावस्या पूनम को अतृप्त आत्माएं धूलकोट में मारे गए लोगों की आती है। दोनों की आवाज आती है। अन्य प्रतिमाएं इस प्रकार हैं पहले तीर्थंकर प्रतिमा, दूसरा द्वारपाल, तीसरा देव प्रतिमा, चौथा त्रिभागी मुद्रा द्वारपाल, पांचवी तीर्थ की प्रतिमा खण्डगास, छठवीं तीर्थ प्रतिमा पाथनार्थ, प्रतिमा खण्ड, परिकर भार प्रतिमा बैठी हुई। सातवां तीर्थकर प्रतिमा खंडगासन सिर वाहिनी, सातवां देवी प्रतिमा, वैष्णवी 11वीं 12वीं ई., आठवां प्रतिमा खंड अंबिका 11वीं 12वीं इ., नौवा उमा महेश्वर प्रतिमा, खंडित मस्तक विहिन 12वीं, दसवीं विष्णु प्रतिमा उद्र्धभिग, 11वां दिगपाल इंद्र, अष्टदिगपाल की सुंदर प्रतिमा, 12वां युगल प्रतिमा शिव पार्वती, 13 नरव्याल खण्ड अवस्था 12-13वीं (जिसका सिर नर का है), 14 गरूढासीन विष्णु, 15 नायिका प्रतिमा,  16 स्तम्भ भी मिले है परमार कालिन, 17 मकर मुख परनाल पूजा का पानी निकासी का, 18 स्थापत्य अवशेष पुष्प, अलंकार सहित सतदल कमल की। 19 सम्भाव शेष मजरीयुक्त स्तम्भ अवशेष, 20 गज साईल अलंकार युक्त स्तम्भ, 21 यक्ष-यक्षिणी गोमेद अवंतिका, 22 सुर सुंदरी (द्वारपालिका), 23 वक्ष स्थल राजभाव प्रतिमा, 24 आदिनाथ, 25 देवी प्रतिमा (जैन यम्मी), 26 हृदय ग्रीव द्वार, 27 महिषासुर मृदनी, 28 लक्ष्मीनारायण मंदिर, 29 नंदी प्रतिमा, 30 कुबेर, 31 अद्र्धनारीश्वर, 32 चामुण्डा प्रतिमा, 33 तीरकर मस्तक, 34 सूर्य, 35 वीण धर शिव, 36 शिवविंग, 37 चंद्रेश्वरी, 38 गधा प्रतिमा, 39 मयूर प्रतिमा, 40 घुड सवा प्रतिमा आदि लगभग 300 प्रतिमा जो सभी बालू व पत्थर की बनी हुई है। इसके अलावा यहां के घरों, आंगन, खेत, खलियान में सैकडो की तादात में बिखरी पडी है। इन्हें संजोने वाला कोई नही है। सात वाहन सिक्के, परमार मुगलकालिन सिक्के भी मिले है।
ऐतिहासिक व पौराणिक महत्व के स्थल को उनके मुल स्वरूप में जीवित रखना पुरातत्व विभाग व सरकार की जिम्मेदारी है। किंतु एक तार के गोल घेरे में यह दुर्लभ प्रतिमाएं कब तक संरक्षित रहेगी वह भी एक गार्ड के भरोसे। लावा अवस्था में उपेक्षित धरोहर, बजटहीन पुरातत्व विभाग क्या कर पाएगा? थोडे से प्रयास और नैतिक जिम्मेदारी अगर सरकार वहन कर ले तो शायद हमे इतिहास का गौरव हासिल हो जाए और नया अध्याय जुड जाए जो अभी धरती की कोख में बिलख रहे है।